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यही जो आज इस बस्ती के लोगों को खले होंगे / शतदल
Kavita Kosh से
यही जो आज इस बस्ती के लोगों को खले होंगे ।
ये आदमख़ोर जंगल में नहीं घर में पले होंगे ।
बरहना द्रौपदी के नाम महलों से गुफ़ाओं तक
उसी तहजीब के भूखे करोड़ों सिलसिले होंगे ।
जिन्हें हम भक्ति से जाकर चढ़ा आए शिवालों में
वो सिक्के खूब कोठों पर खनाखन-खन चले होंगे ।
तुम्हारे आईनों में शक़्ल क्या हमको दिखे अपनी
कि इनकी आदतों में हुस्न के सब चोंचले होंगे ।
हमारी कौम ने जो बाग़ सींचे थे लहू देकर
तुम्हारी हद में वो बेसाख़्ता फूले-फले होंगे ।
हमारे पास थोड़े लफ्ज़ हैं कहना बहुत कुछ है
हवन में हाथ औरों के भी मुमकिन है जले होंगे ।