भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यही बच रही / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
दिन यदि चले गए वैभव के
तृष्णा के तो नहीं गए
साधन सुख के गए हमारे
रचना के तो नहीं गए
जो कुछ झेला था इस तन पर
वह इस मन को दे डाला
फिर भी बहुत बची है
चुम्बन में जीवन की मधु-ज्वाला
वही बच रही कोपल
आँधी ने जब टहनी दी झकझोर
भूसी का कबिरा क्या करता
तत्त्व तत्त्व रख लिया पछोर ।