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यही सबब है जो हल मसअला नही होता / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
Kavita Kosh से
यही सबब है जो हल मसअला नहीं होता
कि ज़ह्नो-दिल मे कोई मश्विरा नहीं होता ।
हम आईने के मुकाबिल तो रोज़ होते हैं
हमारा ख़ुद से मगर सामना नहीं होता ।
हवा जिधर की चले, रुख़ उधर का कर लेना
समन्दरों में कोई रास्ता नहीं होता ।
बयान, पेशी, गवाही तो रोज़ होते है
मगर हयात तेरा फ़ैसला नहीं होता ।
वो जिसमें शाख़ें निकलती नहीं हैं शाख़ों से
उसी दरख़्त का साया घना नहीं होता ।
सब अपने-अपने लिए जी रहे हैं ए ’बेख़ुद’
यहाँ तो कोई किसी का सगा नहीं होता ।