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यही सब / सुरेश विमल
Kavita Kosh से
हुआ-हुआ
यही सब...हुआ
महाजन हो गई प्यास
और दिवालिया
कुआं
हवाये रोने लगीं
दुर्घटनाओं पर
देखते देखते आदमी
बैसाखियों का
हुआ
दरख़्त
घुटनों में सिर दिये
बैठ गया
छाया का आकार
सिर्फ
तक्षक के लिए रहा
निर्वासित यक्ष सा
संस्कृति पुरुष
चीखता रहा
अपनी खोई हुई
पहचान के लिए
धृतराष्ट्र हो गया
सूर्य
और सहस्र-नेत्र
धुआं...!