गुलाबी से अधर दोनों, वदन पर छा रही लाली
हिरन को मात देती है, तुम्हारी चाल मतवाली
हरी सी घास पर पसरी, रहे ज्यों पेड़ की छाया
बड़ा सुख चैन देती है, तुम्हारी कामिनी काया।
जलन से ग्रस्त है यह जग, नहीं मिलता स्वजन कोई
निठुरता देख कर नर की, न मेरी आँख तक रोई
न लागे मन कहीं भी अब, जपूँ बस नाम की माला
जगत की पीर सह कर भी, उतारी है गले हाला।
धरा पर हो विचरती तुम, धवल- सा रूप ले तेरा
यही है कामना मन की, मिलन होगा कभी मेरा
धड़कता है हृदय मेरा, तेरे बस नाम को लेकर
भटकता फिर रहा हूँ मैं, यहाँ घर से हुआ बेघर।
प्रखर यौवन मचलता तव , धरा यह हो सुगंधित सी।
सदा चाही गई हो तुम, जगत की नित्य वंदित भी।।