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यही है राम की पहचान / संजय तिवारी

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वह अनजान नहीं है
उसका अनुमान नहीं है
उसकी दृष्टि में
यह स्वाभिमान नहीं है।
यह अयोध्या का सवाल नहीं है
क्या गलत है, क्या सही है
सवाल उस मनुष्य का है
जिसकी खुद की संज्ञा
इसी अयोध्या से बनती है
सृष्टि के प्रथम पुरुष
मनु से ही यह जनती है
इसी संज्ञा में छिपा है
अयोध्या और मेरा अस्तित्व
मेरा क्या हो सकता है अभिमान
इस घोर कलिकाल में कैसा अपमान
या कि कैसी कोई निशानी
इन्हे कौन बताये
यही है सरयू का पानी
दुःख तो यह कि ये जान नहीं सकते
यह मनुष्य मनु से ही बना है
ये मान नहीं सकते
यह कितना बड़ा खिलवाड़ है?
बुद्धि का कैसा उजाड़ है?
कागज के पन्नो में
ईंट, गारे और पत्थर के जंगल में
आपस के ही दंगल में
मनुष्य के ये दल
तलाश रहे मेरा अस्तित्व
किसी भूमि के अंश पर
मेरा स्वामित्व
मनुष्य और मनुष्य के बीच का विवाद
मनुष्य ही कर रहे न्याय का संवाद
और न्यायासन पर भी
मनुष्य ही विराजमान
अभूतपूर्व अभिमान
अनुमान
भविष्य से अनजान
इन्हे कौन बताये कि
मैं केवल एक शहर नहीं हूँ
किसी सभ्यता के लिए जहर नहीं हूँ
मैं सृष्टि का अवध्य हूँ
जगत का निबध्य हूँ
जीवन के लिए बाध्य हूँ
इस मनुष्य के लिए असाध्य हूँ
केवल दशरथ या इक्ष्वाकु की नहीं हूँ
तुम नहीं जान सकोगे
मैं इस धरती पर
पृथु की कृपा नहीं हूँ
नहीं हूँ किसी नृप की नृपा
अयोध्या यूँ ही नहीं हूँ
मनु के पूर्व भी रही हूँ
मानव
तुम कैसे जान सकोगे मेरा इतिहास
तुम्हे कभी न होगा इसका आभास
निष्फल ही होगा प्रयास
मैं तो सनातन दर्शन की सहयात्री हूँ
तुम कैसे समझोगे कि गायत्री हूँ
अनुभव करो सरयू का ताप
अनुभव करो
कौशलपति के महल में
आरती का आलाप
अनुभव करो सागर को, सगर को
अनुभव करो सिद्धाश्रम की डगर को
अनुभव करो या करो विश्राम
अनुभव करो सिया के राम को
अनुभव करो उस विराम को
काल के लिए बेमानी हैं
अनुभव और अनुमान
सृष्टि के लिए जरुरी है
संस्कृति,संस्कार और स्वाभिमान
यही है अयोध्या
यही है राम की पहचान।