कभी तो आओ
मनमीत यों तुम
मुझपे छाओ
जैसे कि छा जाता है
धरती पर
प्रेमासक्त गगन
बाहों में भर
उसका तपा तन
हो बेसबर
सीने में छिपाता है
सारा का सारा
ताप पिघलाता है
तब जाकर
शीतलता पाता है
धरा का मन
यह अकेलापन
सच मानो तो
आग के जैसा ही है
तुम आकर
विरह को बुझाओ
बरस जाए
ज्यों सावन में घन
और मिटाए
हर एक जलन
है निवेदन
तुम भी यों ही करो
बरस जाओ
बुझ चले विषाद
बचे तो बस
प्रेम की ही अगन
जिसमें फिर
कुंदन का- सा बन
निखर जाए
मेरा रंग औ रूप
मुझको मिले
केवल औ केवल
सिर्फ तुम्हारी
गुनगुनी, गुलाबी
नेह की धूप
भोर से साँझ तक
जो मुझे सहलाए।