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यह अनोखी शाम / कुमार रवींद्र
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नदी का जल बह रहा है
दूर
तिरती जा रही है
यह अनोखी शाम
बीच धारा में खड़ी है
धुत सुनहली
रोशनी की नाव
खे रही है डूबता सूरज
घाट पर से
टहनियों की छाँव
कह रहे
अलविदा पनघट से
झिलमिलाते घाम
हो गया आकाश मद्धिम
धूप की
परछाइयों को झेल
रेत पर
अंतिम किरण के
बिछ गए हैं सोनपंखी खेल
हर लहर में बस रहे हैं
फिर
चिनारों के नगर अविराम