भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह अनोखी शाम / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी का जल बह रहा है
     दूर
     तिरती जा रही है
            यह अनोखी शाम
 
बीच धारा में खड़ी है
धुत सुनहली
रोशनी की नाव
खे रही है डूबता सूरज
घाट पर से
टहनियों की छाँव
 
कह रहे
अलविदा पनघट से
          झिलमिलाते घाम
 
हो गया आकाश मद्धिम
धूप की
परछाइयों को झेल
रेत पर
अंतिम किरण के
बिछ गए हैं सोनपंखी खेल
 
हर लहर में बस रहे हैं
फिर
       चिनारों के नगर अविराम