यह आदमी / रणजीत
बड़ा ही कमअक़ल है यह आदमी
अपने ही शरीर के किसी अंग को
अपनी समस्याओं का कारण मानता है
अपशकुन समझ कर
अपने ही दाहिने हाथ से निकाल लेता है अपनी बाँईं आँख
और अपना ही एक कान काट कर
उसे मसाला लगा, फ़्राई करके
पेश कर देता है अपनी स्वाद-लोलुप जीभ के सामने ।
अपनी समस्याओं की जड़ मानकर
काट देना चाहता है
अपनी ही आबादी के एक हिस्से को
यातना-शिविरों या जेलों में ठूँस देना चाहता है
या पागलखानों में बंद कर देना चाहता है ।
हर समाज ने अपने किसी न किसी अंग को बना रक्खा है गलित
जिसे वह काट कर समय-समय पर चढ़ा सके
अपनी कठिनाइयों की वेदी पर
कहीं उसे नीग्रो कहकर
तो कहीं हरिजन
कहीं कुर्द तो कहीं वहाबी
कहीं कम्युनिस्ट छापामार
तो कहीं सी०आई०ए० के एजेन्ट
कहीं देशद्रोही
तो कहीं समाजवाद के शत्रु ।
बड़ा आत्मभक्षी है यह आदमी
बड़ा मुर्दुमख़ोर
अपना ही माँस नोचता है
अपना ही बहता हुआ ख़ून चाटता है
और ख़ुश होता है
कि सेहत बन रही है
यह आदमी
भेड़ियों से भी भयानक है यह आदमी
लकड़बग्घों से भी खूँख़्वार
बिज्जुओं से भी वीभत्स
कोई भेड़िया किसी भेड़िए को नहीं खाता
कोई लकड़बग्घा नहीं चाटता किसी लकड़बग्घे का ख़ून
कोई बिज्जू किसी बिज्जू की क़ब्र नहीं खोदता
पर यह आदमी
अपनी ही नस्ल की सामूहिक हत्या में लगा हुआ है
झण्डों और बैण्डबाजों के साथ ।
लगा हुआ है तो हज़ारों बरसों से
पर अब मामला ख़तरे के निशान से काफ़ी ऊपर पहुँच चुका है
अपनी बीसों अँगुलियों में उगा लिए हैं इसने
ज़हरीले बघनखे
पहले की तरह अब यह संभव नहीं है
कि उसका एक हाथ नोच ले दूसरे हाथ को बघनखे से
और फिर भी ज़िन्दा बचा रहे यह आदमी ।