हाँ, यह धुन है
उसी राग की
जो बजता हर ऋतु-हर पल में
यह आदिम डमरू का सुर है
जिसे रचा था
शिवशंकर ने
इसी नाम को है दोहराया
सुबह-शाम हर पूजाघर ने
गूँज रही है
वही तान
बहते झरनों-नदियों के जल में
कभी बाँसुरी
कभी शंख-ध्वनि
हो जाता यह राग सनातन
बरखा की फुहार में, भन्ते !
इन्हीं सुरों में गाता सावन
रात-रात भर
तूफानों में
यही राग बजता जंगल में
पता नहीं
कितने जन्मों से
हमने इसको सुना गूँजते
और चिता के अग्नि-ज्वाल में
हमने देखा इसे काँपते
यही राग
हिमगिरि पर बजता
यही बजा सागर के तल में