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यह आदिम डमरू का सुर / कुमार रवींद्र

हाँ, यह धुन है
उसी राग की
जो बजता हर ऋतु-हर पल में
 
यह आदिम डमरू का सुर है
जिसे रचा था
शिवशंकर ने
इसी नाम को है दोहराया
सुबह-शाम हर पूजाघर ने
 
गूँज रही है
वही तान
बहते झरनों-नदियों के जल में
 
कभी बाँसुरी
कभी शंख-ध्वनि
हो जाता यह राग सनातन
बरखा की फुहार में, भन्ते !
इन्हीं सुरों में गाता सावन
 
रात-रात भर
तूफानों में
यही राग बजता जंगल में
 
पता नहीं
कितने जन्मों से
हमने इसको सुना गूँजते
और चिता के अग्नि-ज्वाल में
हमने देखा इसे काँपते
 
यही राग
हिमगिरि पर बजता
यही बजा सागर के तल में