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यह कैसा अंधकार? / आलोक श्रीवास्तव-२

नीला आसमान
गझिन हरी पत्तियों से लदी एक टहनी
उदग्र
धूप पत्तियों के
अंतराल से छनती

सूनसान दोपहर

एक चेहरा
याद में अटका

जिसकी आंखों में
अपरिचय

फिर भी उस की ही कामना में
टूटता मेरा अस्तित्व

यह कैसा अंधकार
अपने ही भीतर होता
सघन!