भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह कैसी चुप है / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे चारों ओर
एक कँटीली चुप है
मैं उस चुप की गिरफ्त में
गले तक धँसी
ये कैसी चुप है?
जिसमें अरमानों के
टूट जाने का शोर है
होठ खुलते हैं
लफ्ज़ निकलते हैं
पर उस तक पहुँच नहीं पाते
बीच में ही कहीं परिंदे चुग लेते हैं
या चिडिया पर फडफडाकर
उन्हें उडा देती है
कहीं का कहीं
लफ्ज़ भटक जाते हैं
और चुप तारी हो जाती है
ये कैसी चुप है?
जिसमें कोख में कत्ल बेटियों की
खामोश चीखों का शोर है
उनकी भटकती रूहों का शोर है
जो सदियों तक
राजा के हाथी के पैरों तले
या खाट के पाये तले
या दूधपीती कर कत्ल की गई

ये कैसी चुप है?
जिसमें कोठों में
बिकते जिस्मो का
सरेआम लुटती अस्मत का
मजबूर शोर है
और चीखती सर पटकती
हवाएँ बेआवाज़ गुज़र जाती हैं। परवरदिगार!
इस चुप में
बस एक बार जीकर दिखा
मैं माफ कर दूँगी
मुझे जन्म देने का गुनाह तेरा