यह घड़ी / सत्येन्द्र श्रीवास्तव
सामने जो बुत बनी-सी चुप खड़ी है
वह परीक्षण की घड़ी है
डेस्क पर रक्खे पड़े हैं कई कोरे पृष्ठ
अँगुलियों में जड़ हुई सहमी रुकी पेंसिल
दृष्टियों में बाढ़ है बीते हुए कल की
बह रहे हैं धड़ों से अलगा चुके कुछ दिल
अरथियाँ हैं स्याह क्षितिजों की
लाश किरणों की पड़ी है
मोह आहत, सीढ़ियों पर झुका बैठा दम्भ
चल रही है ग्रीक ट्रेजडी, गिर रहे स्तम्भ
संतरी ख़ुद बन गया खलनायको का नृप
यहाँ विधिवत हो रहा है नाश का आरम्भ
प्यार है अपशब्द जग के कोश में
सुधि परीक्षक की छड़ी है
फैलती ख़ामोशियाँ, हर इंच पीड़ा की दरक
हर जगह है प्रश्न, उत्तर अब न लाते कुछ फ़रक
सिर नहीं खुजला रहे हम हैं समय को नोचते
उम्र की जलधार में हर क्षण मगर जाता सरक
सृष्टि अपनी बेबसी की श्रृंखला
पीढ़ियों की यह कड़ी है।