यह घूँघट का चाँद सुहाना / विमल राजस्थानी
यह जीना भी क्या जीना है
सहना है दुख-भार हर घड़ी, गम खाना, आँसू पीना है
यह जीना भी क्या जीना है
प्यार-प्रणय की बात न करना
छाया सेस भी डरते रहना
प्रेम-नगर की डगर बुरी है
सौ धारों की एक छुरी है
भूले से भी पग मत धरना
तड़पोगे, रोओगे वर्ना
नींद चुरा ली लाखों आँखों की, उनका सरबस छीना है
यह जीना भी क्या जीना है
मुश्किल है मुश्किल रे पाना
यह घूँघट का चाँद सुहाना
ऊपर वाले चंदा पर तो-
लगा हुआ है आना-जाना
पर इस शशि पर मन मचला तो-
नहीं लगेगा ठौर-ठिकाना
वज्रों की दीवारें झूठीं, मत समझो घूँघट झीना है
यह जीना भी क्या जीना है
धरम-करम की बातें होंगी
आदर्शों की घातें होंगी
दिन तो होंगे धुँधले-धुँधले
दुख की काली रातें होंगी
अन्तर लपटों का घर होगा
बे मौसम बरसातें होंगी
चख कर देखो-अमृत मात है, किन्तु हलाहल से भीना है
यह जीना भी क्या जीना है
-15 अगस्त, 1976