यह घूमने वाली औरतें जानती हैं (कविता) / दयानन्द पाण्डेय
जगह-जगह घूमने वाली औरतें
घर से बाहर निकलने वाली औरतें
ख़ास कर फ़ील्ड में काम करने वाली औरतें
ज़्यादा जानती हैं
दुनिया के बारे में, पुरुषों के बारे में
उन से होने वाले ख़तरों के बारे में
बाहर निकलने से
उन की दुनिया बड़ी हो जाती है
पुरुष नहीं जानते, दुनिया नहीं जानती
इन औरतों का अनुभव और इन का अंदाज़
कि चुप रह कर भी कैसे यह सारे विष पी जाती हैं
कि चुप रह कर भी यह सब को टटोल लेती हैं
तौल लेती हैं अपनी तराजू पर
और चुपचाप कब बेच देती हैं
बेच कर पकौड़ी खा जाती हैं
बिकने वाले को पता भी नहीं पड़ पाता
यह औरत लोलुभ पुरुष
स्त्री शक्ति के आगे कैसे हांफ-हांफ जाते हैं
कैसे मैनेज हो जाते हैं चुटकी बजाते ही
यह औरतें जानती हैं
औरत का रूप उस की कमज़ोरी है
तो अब यही रूप अब ताक़त भी
अब वह अहिल्या से पत्थर बनने को तैयार नहीं हैं
किसी इंद्र के झांसे में आने से इंकार है उसे
और जो अहिल्या बन भी गई कभी ग़लती से
तो यह औरतें अब किसी राम का इंतज़ार नहीं करतीं
ख़ुद पत्थर तोड़ कर, पत्थर छोड़ कर
वापस अहिल्या बनना जान गई हैं
यह औरतें जानती हैं कि
पुरुषों को कैसे कठपुतली बना कर नचाया जाता है
कैसे पुरुषों को उन की ही बिसात पर हराया जाता है
कैसे पुरुषों के अहंकार को सांप के फन की तरह कुचला जाता है
यह औरतें जानती हैं इन पुरुषों को और इस बाज़ार के फंडे को
और उन के ही फंडे की फ़ितरत से कुछ सलाई निकाल कर
बुन देती हैं उन के लिए कई-कई मज़बूत फंदा
जिस फंदे से वह कभी निकल नहीं पाते
सांस नहीं ले पाते
और बार-बार मारे जाते हैं
पुरुषों के ही छल, पुरुषों के ही कपट
अपना लिए हैं इन औरतों ने
कहीं ज़्यादा
इन पुरुषों को हराने के लिए
लेकिन यह बात यह पुरुष नहीं जानते
कई बार जानते हुए भी नहीं जान पाते
जब कभी जानते भी हैं तो चुप रह जाते हैं
मारे शर्म के
जैसे कभी-कभी औरतें सारे छल-छंद के बावजूद
चुप रह जाती हैं
मारे लाज के
[23 दिसंबर, 2014]