यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे / माखनलाल चतुर्वेदी
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
भाग्य खोजता है जीवन के
खोये गान ललाम इसी में,
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
अन्धकार लेकर जब उतरी
नव-परिणीता राका रानी,
मानों यादों पर उतरी हो
खोई-सी पहचान पुरानी;
तब जागृत सपने में देखा
मेरे प्राण उदार बहुत हैं!
पर झिलमिल तारों में देखा
’उनके पथ के द्वार बहुत हैं’,
गति न बढ़ाओ, किस पथ जाऊँ,
भूल गया अभिराम इसी में,
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
जब स्वर्गंगा के तारों ने
आँखों के तारे पहिचाने
कोटि-कोटि होने का न्यौता
देने लगे गगन के गाने,
मैं असफल प्रयास, यौवन के
मधुर शून्य को अंक बनाऊँ
तब न कहीं, अनबोली घड़ियों
तेरी साँसों को सुन पाऊँ
मंदिर दूर, मिलन-बेला-
आगई पास, कुहराम इसीमें
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
बाँट चले अमरत्व और विश्वास
कि मुझसे दूर न होंगे!
मानो ये प्रभात तारों से
सपने चकनाचूर न होंगे।
पर ये चरण, कौन कहता है
अपनी गति में रुक जावेंगे,
जिन पर अग-जग झुकता है
वे मेरे खातिर झुक जावेंगे?
अर्पण? और उधार करूँ मैं?
’हारों’ का यह दाम? लुटी मैं!
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
चिड़ियाँ चहकीं, तारों की-
समाधि पर, नभ चीत्कार तुम्हारी!
आँख-मिचौनी में राका-रानी
ने अपनी मणियाँ हारीं।
इस अनगिन प्रकाश से,
गिनती के तारे कितने प्यारे थे?
मेरी पूजा के पुष्पों से
वे कैसे न्यारे-न्यारे थे?
देरी, दूरी, द्वार-द्वार, पथ-
बन्द, न रोको श्याम इसी में
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!
हो धीमे पद-चाप, स्नेह की
जंजीरें सुन पड़ें सुहानी
दीख पड़े उन्मत्त, भारती,
कोटि-कोटि सपनों की रानी
यही तुम्हारा गोकुल है,
वृन्दावन है, द्वारिका यहीं है
यहीं तुम्हारी मुरली है
लकुटी है, वे गोपाल यहीं हैं!
’गोधूली’ का कर सिंगार,
मग जोह-जोह लाचार झुकी मैं।
यह चरण ध्वनि धीमे-धीमे!