भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह ज़मीन / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे किसी की कोरी बातों पर अब रहा नहीं यक़ीन।
मुझे चाहिए ठोस सबूत
कोई दूसरा भी मेरी बातों पर भरोसा कर ले
-मैं नहीं चाहता
आग में
ख़ून में
और टकराव में
सब-के-सब मुझे ठोक-बजाकर देख लें।

इस अँधेरे में भी मैं देख रहा हूँ वे तमाम घिनौने चेहरे
एक दिन जिन्होंने मुझसे वादा किया था लेकिन धोखे में रखा।
प्रतिशोध को वे भले ही कोई नाम दें
लड़ाई को भले ही कोई जामा पहना दें,
मौत को कोई लुभावना नाम देने के बावजूद
मैं अब धोखा खा नहीं सकता।

सागर से हिमालय तक
फेली है मेरे विश्वास की यह ज़मीन।
मुझे बातों में बहला-बहकाकर
कोई भी नहीं छीन सकता यह ज़मीन।