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यह जो प्रेम है / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
शाम भी घायल हुई थी
बाँसुरीवादक के
विषाद से
बादलों ने रोकर जाहिर किया
अपना मातम
किसी की राह देख रही थी
रात
जिसे बिछाकर सो गया था
भिखारी
धुएँ से सराबोर आबादी
के बीच भी
बचा हुआ था जीवन
हर मोर्चे पर चोट खाने के
बावजूद भी
आदमी भूल नहीं पाया था
प्रेम ।