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यह दिन उम्र की रोज़ी है / विनोद कुमार शुक्ल
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यह दिन उम्र की रोज़ी है
एक सुभ हुई की तन्ख़ा मिली
और शाम हुई में खर्च हुई
अगले दिन का क्या पता
इस क्या पता दिन की भी सुबह हुई
यह उधारी हुई।
मित्रो, दिनों के उधार को
मैं दूसरों के जीवन से बहुत प्रेम कर चुक दूंगा।
परंतु हम सभी के आजकल के दिनों की यह लूट और हत्या की रपट है
कि मैं किसी भी दिन को जैसे उन्नीस फ़रवरी के दिन को
कविता के रोजनामचे में दर्ज़ कराता हूँ।