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यह दिन / सरोज परमार
Kavita Kosh से
अंगीठी में दहकते कोयलों को
देखने का अभिनय करती
बक्त को चबाने का अभिनय करती हूँ।
दर्द का मार्फिया सूँधे,
कब से
बेहोश पड़े हैं दिन
मर क्यों नहीं जाते यह दिन।
अब कुछ हो नहीं पाता मुझसे
कुछ करने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए ।
मन अब भुलाते भूल बैठा है ।
इन्द्रधनुश को देख ललचाता नहीं ।
जानता है
उधार लिए रंगों से सपने नहीं रंगे जाते ।
मेरा मन सब्ज़ों का खज़ाना था
जो पत्थर के भाव बिक गये
मेरे लिये
वोडका और पानी के गिलास
में कोई फर्क नहीं रह गया है।