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यह धरती का राग नया / कुमार रवींद्र
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पत्ते झरते
झरझर-झरझर
और हवाएँ तूफानी हैं
यह धरती का राग नया है
वासंती कोंपल का मौसम
हुआ पुराना
माना, मोहक था
भीगी बरखा का गाना
आई है ऋतु
ठूंठ-हुई शाखाओं की यह
चंपा का तो पत्ता-पत्ता उतर गया है
सुबह कुहासे
दुपहर तक आते बादल हैं
धूल उड़ाते वैरागी-से
दिन पागल हैं
पीपल से है
गिरा घोंसला पत्तों के सँग
चीख-चीख कर मंडराती फिर रही बया है