भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह धरती तुम्हारी नहीं है / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं चाहिए मुझे
आपके आविष्कारों का फल
मुझे
मेरा खुला आसमान
मुक्‍त हवा
मानवी गंधयुक्‍त
वही स्वतंत्र धरती लौटा दो
जिसे आपने
अपने पूर्वजों से
अपने छल बल से नहीं
याचना में ली थी।
याचना में ली चीज की
सम्भार करना
तुम्हें ज्ञात नहीं
तो कोई बात नहीं
यह ॠण तो आखिर
तुम्हें चुकाना है
यह भलीभांति याद रखना।

तुम्हें
यह हक कब दिया था
मेरे पूर्वजों ने
कि, तुम उसके
आवास में छुपे
भंडार को बाहर निकालो
उसी के बल
ऎसे प्रयोग कर डालो
कि पूरी मानवता को लीलने का
उसी से
एक विषैला हथियार रच डालो।
कौन कहता है
एक विषैला हथियार रच डालो।
कौन कहता है
पूर्वजों को ज्ञात नहीं था
अपने ही आवास में छुपे
रचना और विनाश के
अखूट
अकूत तत्वों का।


तुम ने तो
वह किय है
जो एक किरायेदार भी
हरगिज नहीं करता।
मैनें
कभी नहीं देखा
खाली घर का
एक अदना सा कमरा
किराये पर ले कर
किसी किरायेदार ने
पूरे घर का सामान
सड़क पर ला रखा हो।
किरायेदार जानता है
उसे केवल
अपने को मिले
उसी कमरे से मतलब है;
घर मे क्या छूपा है
उसे क्या मतलब है

तुम
अपनी हद से
बहुत आगे बढ़ गए हो
इसी लिए
विनाश के महाभंवर में फंस गए हो
अभी व्यक्‍त है
संभल जाओ
यह धरती तुम्हारी नहीं है,
जिनकी है उन्हे सौंप दो
बिल्कुल वैसी ही
जैसी ली थी याचना में।