भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह नदी / अनिरुद्ध नीरव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह नदी
रोटी पकाती है
हमारे गाँव में

हर सुबह
नागा किए बिन
सभी बर्तन माँज कर
फिर हमें
नहला-धुला कर
नैन ममता आँज कर

यह नदी
अंधन चढ़ाती है
हमारे गाँव में

सूखती-सी
क्यारियों में
फूलगोभी बन हँसे
गंध
धनिए में सहेजे
मिर्च में ज्वाला कसे

यह कड़ाही
खुदबुडाती है
हमारे गाँव में

यह नदी
रस की नदी है
हर छुअन है लसलसी
ईख बनने
के लिए
बेचैन है लाठी सभी

गुनगुना कर
गुड़ बनाती है
हमारे गाँव में ।