यह नहीं है कविता / विनोद भारद्वाज
सत्तर किलोमीटर चलकर मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया
इस एक वीरान सड़क पर
और उसकी हिम्मत देखिए, वो फिर चल पड़ी
सिर्फ़ एक घण्टे बाद
चलती रही, चलती रही, एक सौ साठ किलोमीटर और
नाशिक से हम चले सोलह थे, बॉर्डर पर पहुँचे सत्रह
मैं नन्ही - सी थी पर देख सकती थी सब कुछ
समझ सकती थी बहुत सारी चीज़ें
बॉर्डर पर पुलिसवाला बुरा नहीं था
उसने मुझे थोड़ी देर गोदी में सम्भाला
उसने मेरी माँ से पूछा, कहाँ जाओगी
माँ देर तक हिसाब लगाती रही
शायद अभी घर बहुत दूर है
अभी तो मीलों मुझको चलना है
और मैं देख रही हूं कि वह अपने अजीब पागलपन में
चले जा रही है
मैं क्या किसी घर पहुँच पाऊँगी
घर कैसा होता है माँ ?
ये दुनिया क्या मुझे कोई घर दे सकेगी
रास्ते में बैठकर तेरह औरतें और तीन मर्द
आग के लिए लकड़ियाँ ढूँढ़ रहे हैं
और मैं एक बच्ची इस लम्बे रास्ते में
अपना घर खोज रही हूँ
तुम बताओ न माँ घर क्या इतने दूर होते हैं ?
एक सच्ची घटना से प्रेरित