भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह निर्मम संध्या ... / श्यामनन्दन किशोर
Kavita Kosh से
यह निर्मम संध्या की बेला!
धीरे-धीरे चन्द्र-किरण पर
उतरी दिन की थकन चरण धर।
ऐसे करुण अतिथि का मैं भी
कैसे कर सकता अवहेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!
नीड़ों में सो गये विहग-दल,
तजकर मधुर स्वप्न का आँचल!
मैं ही क्यों सूनी पलकों से
देख रहा तारों का मेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!
नरम-नरम चुप अश्रु बहाती,
बुझी मोमबाती भी जाती।
इस दुनिया में क्या जलने को
मैं ही बचता शेष अकेला?
यह निर्मम संध्या की बेला!