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यह निशा, यह भोर क्या है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
यह निशा, यह भोर क्या है,
शांति क्या यह, शोर क्या है?
किसलिए बहती हंै नदियाँ
ठहरतीं, फिर सूख जातीं,
झूमती पागल हवाएँ
क्यों कभी आँसू बहातीं;
ये हरे पन्नों के पत्ते
किसलिए पुखराज होकर,
अब धरा पर सो गये हैं
यूं शिशिर में बहुत रो कर !
पुतलियाँ हो नाचते सब
नियति की वह डोर क्या है?
यह जरा, यह मृत्यु कैसी,
किस मिलन में स्वर्ग नाचे,
हार के पीछे रुदन में
जीत का मधु मंत्रा बाँचे;
आग पीने के लिए सब
इस तरह व्याकुल बने क्यों,
हँस न पाए एक चुटकी
आँसुओं के सामने क्यों !
वेदना, तृष्णा के भव से
छूटने का छोर क्या है ?