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यह बारिश है कि मैं ही बरस रहा हूँ / दयानन्द पाण्डेय

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इस भरी बारिश में
दरवाज़े से झांकता यह आम का पेड़
तुम्हारी दशहरी को चूसना
उस की मिठास का भास, एहसास
और दशहरी की नशीली खुशबू में तर
यह मादक साथ तुम्हारा!
 
आह, यह तुम्हारी याद!
  
तुम मिलती भी हो तो बरखा बन कर
यह बारिश है कि मैं ही बरस रहा हूं
तुम्हारे भीतर
जैसे कोई संगीत बज रहा है
मद्धम-मद्धम
किसी जलतरंग सा
तुम्हारी देह में
मैं उतर रहा हूं धीरे-धीरे
इस देह सरोवर में
यह तुम्हारी देह का सरोवर है
या मन की कोई देहरी
जो अभी-अभी पुलक गई है
इस बरखा में भीज कर
और तुम वसुंधरा हो गई हो
मैं जैसे कोई एक जोड़ी बैल लिए
हल जोतता हुआ

प्रकृति जैसे हमें दुलरा रही है
यह प्रकृति है कि तुम हो
सावन की इस बरखा में नहाई हुई धुत्त!

[9 जुलाई, 2015]