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यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी ! / विनय सौरभ

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अब वह एक मीठी टीस है !

वह किसी गुज़रे ज़माने की तरह याद आ रहा है
याद आ रहा है बचपन के खिलौनों की तरह
पहली पाठशाला में चित्रों वाली किताब की तरह याद आ रहा है

ओवर ब्रिज पर चढ़ती हुई बस में जीवन में पहली बार देखी हुई रेल की तरह याद आ रहा है

हम दोनों को कॉलेज में एक ही लड़की पसंद थी
हम झगड़ते थे उसके लिए
एक अज़ब रूमानियत से भरा ज़ज़्बा था कि घर से आए पैसों के बल पर उस लड़की की पसंद पर हम बहस करते थे

कुछ और लड़ाइयों और मनमुटावों के बाद हम रोते थे एक दूसरे के लिए

एक ही कमरे में अलग-अलग बिस्तर पर सोते हुए एक दूसरे को ख़त लिखा हमने देर रात गए

मेरी अनंत बदमाशियों को उसने क्षमा किया, यह मैं अब समझ रहा हूँ

उसका अक्खड़पन याद आ रहा है
उसका दुख से बुझा चेहरा
प्यार देने वाली आँखें
भागलपुर के उर्दू बाज़ार से मसाकचक तक की सिनेमा की आखिरी शो तक खुलीं चाय की गुमटियों के भीतर लकड़ी के ठंढे बेंचो पर उसके साथ की गई अनंत गर्म बहसें ......

सब याद आ रहे हैं !

जब हम युवा होती ज़िंदगी और अपने रूमानी जीवन के अंतहीन लगने वाले दुखों से भरे थे

जीवन के बारे में उसका फक़ीराना मंतव्य भी अज़ीब था यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी !

ऐसे आदमी को अब आप क्या कहेंगे
जो इसी प्रदेश के दूसरे शहर में है और ख़तों के बारे में भूल चुका है
बचपन और जवानी के दिनों के कई महत्वपूर्ण दृश्य अब उसे याद नहीं !
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