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यह भी तो न हुआ / रामगोपाल 'रुद्र'

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इतना भी तो तुम सह न सके, यह एक निशानी तो रह जाए!

नयनों का वह खेल, खेल में, जीवन का जंजाल हो गया!
तुम पत्थर ही रहे और मेरा क्या से क्या हाल हो गया,
अब देखूँ, क्या चाव तुम्हारा यह सपनाघर भी ढह जाए?

आँखों को वह दान मिला कि कलेजे का पाषाण बन गया!
अपना ही अरमान आज अपने मन का तूफान बन गया!
और, तुम्हारी चाह, आज यह पत्थर भी गलकर बह जाए!

लौटी उल्टे पाँव, मौत को भी मुझसे संकोच हो गया,
और, रह गई जान तड़पती हुई कि तुमको सोच हो गया
जीकर जो कुछ लह न सका, वह मरकर ही न कहीं लह जाए!

यह भी तो न हुआ कि नयन से नयन आखिरी बार बोल लें,
दो-दो हृदय मिलें नयनों में और हृदय की गाँठ खोल लें;
जाती-जाती बेर किसी से कोई एक बात कह जाए!

शायद यही विधान, तुम्हारी करुणा का वरदान यही है,
प्रेम फल नहीं पाता; लेकिन दुनिया का अरमान यही है
एक निशानी तो रह जाए, एक कहानी तो रह जाए!
तुमसे तो यह भी न हुआ, यह एक निशानी तो रह जाए!