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यह मन तरसत ही रह जइ है / स्वामी सनातनदेव
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राग राज कल्याण, तीन ताल 26.9.1974
यह मन तरसत हो रह जइहै।
कहा प्रानधन प्रीतम को यह दरसन कबहुँ न पाइ है॥
तरसि-तरसि ही वयस बितायी, का तरसत ही रहि है।
कहा जायगो यामें मेरो, प्रिय को विरद लजइ है॥1॥
यह तो एक काठ की पुतरी, अपनो कहा गँवइ है।
वही नाँच नाँचैगी यह तो जैसो स्याम नचइ है॥2॥
उसने ही यह ललक लगाई, उन बिनु को सरसइ है।
ललकत ही जो प्रान जायँ तो फिरहूँ ललकत रहि है॥3॥
काज-साज कछु याहि न अपनो, यह क्यों वृथा लजइ है।
पै हरि ही जब दई व्यथा तो काकों जाय सुनइ है॥4॥
हरि बिनु अपनो और न है कोउ, जासों जी की कहि है।
कहि-कहि हूँ जो रहै व्यथा ही तो सिर धरि सो सहि है॥5॥