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यह मन पंछी सा / पृथ्वी पाल रैणा
Kavita Kosh से
दिशाहीन यह मन पंछी सा
आस की टहनी पर जब बैठा;
जग मकड़ी के जैसे आकर
पंखों पर इक जाल बुन गया ।
सूरज की सतरंगी किरणें
ख़्वाव दिखा कर चली गईं;
सांझ ढली, सूरज डूबा
मैं जग के हाथों हार गया