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यह मन रहत स्याम-रस भीनो / स्वामी सनातनदेव

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राग हमीर, तीन ताल 4.8.1974

यह मन रहत स्याम-रस-भीनो।
स्याम-सुधा तजि सुरस-कुरस कोउ और न लगत सुखीनो<ref>सुखदायक</ref>॥
तरसत ताही कों यह पल-पल, रसि-रसि चहत नवीनो।
छकि-छकि हूँ नहिं छकत छकीलो, पीन<ref>पुष्ट, मोटा</ref> हूँ लागत दीनो॥1॥
ज्यों-ज्यों पियत पियन ही चाहत, रहत तृसित रस-लीनो।
कैसी है अनुपम यह माधुरि, ज्यों मधुमें मधु-मीनो॥2॥
आपुहि रस, आपुहि रस-दाता, आपुहि रसिक प्रवीनो।
रसि-रसि हूँ नित प्यासहि बाढ़त, घटत न रसहुँ रसीनो॥3॥
जुग-जुग जियहि पियहि यह रति-रस, रहे सदा रस-लीनो।
रस-विहार बिहरत यह मन जनु रस-सरमें रस-मीनो॥4॥

शब्दार्थ
<references/>