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यह माना आकाश में उड़ने लगे अब परिंदे / सांवर दइया
Kavita Kosh से
यह माना आकाश में उड़ने लगे अब परिंदे।
लेकिन कैसे मान लें, लोग नहीं हैं अब गंदे।
जमाने का सबसे हसीन ख्वाब है रौशनी,
लेकिन हो रहे हैं फिर वही अंधेरे के धंधे!
अब भी घुटती है सांस यहां, लेकिन क्या करें,
हर किसी को नज़र नहीं आते, ऐसे हैं फंदे!
तेरी गंगा के पानी पर ग़रूर ज़माने को,
अपने ही घर में प्यासे मर रहे तेरे बंदे!
याद आ रही आज नानी की कहानी जिसमें,
राजा को आंखें देकर योगी हो गए अंधे!