भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह रंग पर्व है / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह रंग पर्व है
गाढ़े रँग से बन्धु रँगो तुम
जो कभी न छूटे

पहले तो तुम
रँगना भाई
अपने खुद के अंतर्मन को
बन्धु ! नहीं कुछ भी बदलेगा
यदि रँग लोगे केवल तन को

यह नेह पर्व है
पोढ़े ढँग से बन्धु बँधो तुम
जो कभी न टूटे

सुन्दर सुरभित
मलय समीरण
फागुन घूमे नदी किनारे
इधर कोकिला राग उचारे
वनकन्या को संत पुकारे

यह गन्ध पर्व है
महुवा वन के साथ रहो तुम
जो कभी न रूठे

इधर चैत में
मादल वंशी
दूर क्षितिज तक पड़े सुनाई
फसले पकीं, चलीं खलिहाने
घर-घर में बजती शहनाई

यह प्रकृति पर्व है
अपनेपन का पात्र भरो तुम
जो कभी न फूटे

इस रँग में तुम
बन्धु मिलाना
गन्ध बौर की फगुनाई को
टेसू की गदराई कलियाँ
कन्दर्प भरी पुरवाई को

यह ज्ञान पर्व है
ज्ञानी ऐसा ज्ञान रचो तुम
 जो कभी न लूटे