यह राह जहाँ पहुँचती है / कल्पना दुधाल / सुनीता डागा
यह राह जहाँ पहुँचती है
उससे आगे नहीं निकलतीं
दूसरी राहें
पग-पग पर छूटते हैं प्राण
इधर खाई उधर कुआँ
न नदी का किनारा
न समुद्र का तट
किसलिए है यह छटपटाहट
किसके लिए है यह उठा-पटक
जो-जो चढ़ गए थे
चले गए हैं वे नाव से
यह आख़िरी पड़ाव
धागा भी अन्तिम
यही है वह समय कि
टिका दें माथा
ऊँचे-ऊँचे झूमर से
ऐसी कोई राह
कोई पगडण्डी भी नहीं
जिससे न लगा हो नेह
पर राहों को जो उधार दिए थे पाँव
दुबारा उन्हें वापस लेने का
निकल चुका है समय कभी का
चहचहाते जूतों को तो बीत गया है
एक लम्बा अरसा
बीच वाले सभी जोड़ों को
वहीं पर छोड़ना पड़ा
जहाँ पर टूट गए थे वे
साथ वाले क़दम निकल गए आगे
नंगे पैर ही तो आता-जाता है जीवन
यह राह जहाँ ख़त्म होती है
वहाँ पर मौजूद और नामौजूद
नदी का संगम
समेट लेता है स्वयं में
समय की सभी राहों को ।
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा