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यह वक़्त / काल को भी नहीं पता / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
दरवाज़े पर हाथ नहीं बजते,
पसलियों में धाड़-धाड़ बजता है भय बेमिसाल,
कल तक अज़नबी
आज इतना परिचित
मानो जन्मा हो साथ-साथ,
दस्तक नहीं,
दिमाग़ के स्क्रीन पर भयावह फ़िल्म है यह रील-दर-रील
खतरनाक
अचानक फ़्रीज हो जाता है
चेहरा किसी खलनायक का खूँखार,
दस्तक हुई नहीं
रात-बिरात
कि बच्चों को भींच लेता है पिता
माँ बुदबुदाती है अस्फुट प्रार्थना
भला, किस किताब में लिखा था
इतिहास की
कि ऎसा भी वक़्त आएगा
एक दिन खाड़कू हो जाएंगी दस्तकें ।