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यह वसंत की रात / कुमार रवींद्र

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यह वसंत की रात
हवाएं महक रहीं हैं मद्धिम-मद्धिम
 
छत पर हम-तुम
और दूर से
गंध आ रही किसी फूल की
औचक छू जाना उँगली का
याद आ रही उसी भूल की
 
यह वसंत की रात
हो रही उधर फागुनी रिमझिम-रिमझिम
 
रात वही यह
पंचपुष्प खिलते जब गुपचुप
अँधियारे में
संज्ञाएँ तैरतीं ताल में हैं अमृत के
और कभी पिघले पारे में
 
यह वसंत की रात
गायें हम देह-राग मिलकर फिर आदिम