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यह वो नहीं / असंगघोष

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तुम्हारे लिए
स्त्री थी
केवल एक देह
जिसके भूगोल पर
लिखते रहे
तुम कविता
नापते रहे
उसके उतार
उसके चढ़ाव
उसके उभार।

तुम लादते रहे
उस पर
अनेकानेक प्रतिबंध
जैसे इन्हें अधिरोपित करने का
तुम्हें एकाधिकार ही हो!

जब चाहा
उस पर उतारते रहे तुम
अपनी वासना का ज्वर
कभी अकेले
कभी सामूहिक।

जब
उसे अपनाने का समय आया
तो तुम परखने लगे
उसकी शुद्धता
जैसे देशी घी खरीदना हो
बाजार से।

जब तुम्हारी शुद्धता का प्रश्न उठा
तुम मनु-विधान की व्याख्या के साथ
कररने लगे
अपनी श्रेष्ठता का बखान
तुम्हारा यह गैर बराबरी का विधान
हर बार बनता रहा तुम्हारी ढाल।

तुम चेत जाओ अब
यह स्त्री वो नहीं है
जो चौदह साल का वनवास काटकर भी
तुम्हारे कहे पर अग्नि परीक्षा दे।

अब उसे इंतजार नहीं है
कि कोई आएगा उसे छूने
और वो पाषाण से जीवित हो उठेगी।

जितनी सीधी दिखती है
उतनी सीधी नहीं है
वो अब आग में तब्दील हो चुकी
ज्वाला है
तुझे जला
खाक कर देगी
इससे पहले
कि वो तुझे जड़ से खत्म कर दे
सुधर जा नामाकूल।