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यह शहर अपने दरवाजे़ पर / हेमन्त कुकरेती

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यह शहर अपने दरवाजे़ पर
स्वागत नहीं करता
उतारता है इज़्ज़त

बड़ी उम्मीद लेकर
आते हैं आप दूर से
आने और लौटकर जाने की
डगमगाती नाव में बैठकर
पाते हैं कि
क्या ग़लत जगह आ गये हम!

नाम-पता वही है
वही है आदमी भी
जिसके नाम का पट्टा पहने
भेड़िया हो गया है कमरा

अभी तुम साबुत हो तो
उसके जबड़ों पर
किसका खू़न है

वह आदमी बहुत अच्छा है कि
सुन्दर है दिखने में
पहने हुए है कितने साफ़ कपड़े
बोलता है कितनी प्यारी आवाज़ में
बार-बार कहता
घर आइए कभी...

इसकी जु़बान तो सुनो
इतनी शुद्ध कि संगमरमर
लेकिन यह क्या
वह चाय का कप नहीं
अपना रौब निकालकर रखता है
आपके सामने
कहिए! क्या काम है?

जानकर कि वह
आपका नाम भूल गया
आप कुछ का कुछ कहने लगते हैं
शर्मिन्दा होते हैं कि साहब क्या सोचेंगे
कुछ गालियाँ जो आप खु़द को देते हैं
काम आती हैं इसी वक़्त
आप व्यस्त हैं फिर तकलीफ़ दूँगा
कहकर चल देते हैं

कितना बड़ा आदमी
जिसे देखिए
यहाँ हर कोई ऐसा ही

चार चिट्ठियाँ लिखने के बाद
आप फ़ोन करते हैं उसके घर
एक मशीन बोलती है
यहाँ कोई नहीं है
कोई सन्देश हो तो कहिए!

बची-खुची इज़्ज़त सँभालते
आप देखते हैं कि
दीवारें पटी हैं इबारत से
‘फिर आइए
आपका हार्दिक स्वागत है...!’