यह शहर तुम्हारे लिए शहर होगा / प्रमोद तिवारी
दिन आवारा बंजारों से
रातें कटती तलवारों से
पैरों को
सड़क नहीं मिलती
सड़कें
चलती हैं कारों से
कारों
और नारों में उलझा
जीवन चौराहों
पर होगा
यह शहर तुम्हारे लिए शहर होगा...
जब नया-नया
बाशिंदा था
तब थोड़ा-थोड़ा
जिं़दा था
अब रटा रटाया तोता हूँ
पहले उन्मुक्त परिंदा था
आ फंसा
धुएं के पिंजरे में
धोखे में था
अम्बर होगा
सोचा था
जंगल छोड़ दिया
पथ को
मंगल से जोड़ दिया
लेकिन रोशन चौराहों ने
अंधी गलियों में
मोड़ दिय
अंधी गलियों में
लुटा-पिटा
हर शख्स जहाँ
घर-घर होगा-
खाली गिलास
ले आये हो
कैसा विकास
ले आये हो
खोलूं तो आंख नहीं
खुलती
ऐसा प्रकाश
ले आये हो
फिर भी
उद्घाटन भाषण में
कहते हो
कल बेहतर होगा
अब सेवा पर भी
कर होगा
मां के बगै़र भी
घर होगा
रिश्ते-नाते
पत्थर होंगे
पत्थर पर
अपना सर होगा
हाथों से हाथ मिलाने पर
सर कट जाने का डर होगा