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यह शहर / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'
Kavita Kosh से
यह कौन-सा शहर है
जहाँ मृत्यु
अच्छे-ख़ूबसूरत खिलौनों जैसी
यहाँ-वहाँ टँगी है
चेहरे पर
देवताओं-दैत्यों के मुखौटे
व्यर्थ वार्तालाप
फ़िजूल सवाल
सर्पों की मानिंद
बिलों में जाते हुए विचार ।
क्या मैं हो गया हूँ चित्तभ्रष्ट
या फिर सूख गया है यह समुद्र
शांत और लहरों से रहित
इस तट पर
लगे हुए कई शिलालेख
ऊँघ रहे हैं ।
उसी दरमियान
प्रेमी-प्रेमिका
महलों का उन्माद बिखेरते हैं
तो बेचारा यह शहर
निर्बल जनता को
सच के लिए
लटका देता है सूली पर
ईसा मसीह की तरह
सच्ची पुकार, झूठा गुनाह
चारों तरफ़ ख़ाकी अजगर
साँस लेते हुए बिखेरते हैं ज़हर ।
सच में यह शहर
ख़ुद ही से जूझता-लड़ता
हो चुका है घायल, बीमार ।
अनुवाद : नीरज दइया