भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह संगुफन / अकेले की नाव अकेले की ओर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रारंभ से लेकर आज तक की हिंदी की कविता-यात्रा की समीक्षा में मैंने महसूस किया कि छायावाद के पूर्व तक करुणा और उसकी संवेद्यता कविता के केंद्र में रही है। इसमें भावना की प्रधानता रही है। छायावाद में भावनाओं के साथ कल्पना की अनूठी उड़ान भी जुड़ गई है। कथ्य को संवेद्य और संप्रेष्य बनाने लिए कवियों ने काव्यगुणों पर भरपूर ध्यान दिया हे। जिन लोगों में कवियों की अभिव्यक्तियाँ जानी थीं उनकी ग्रहणशीलता, उनकी भावगत और मानसिक स्थिति का उनको पूरा बोध होता था। संस्कृत में जिसे साधरणीकरण कहा गया है आज उसका स्थान संप्रेषणीयता ने ले लिया है। ये कवि अपनी अभिव्यक्तियों के संप्रेषण के लिए पूरी तरह सजग रहते थे। पर मार्क्सवादी कविता से आजतक की कविता के केंद्र से ये तत्व और प्रवृित्त विस्थापित -से हैं। इन कविताओं के केंद्र में बुद्धि बुरी तरह हाबी है। इनमें आयास का श्रम है, अभिव्यक्तियाँ स्फूर्त नहीं हैं। ये कविताएँ जिन आयामों में विचरण कर रही हैं वे कुछ ही बुद्धिशाली लोगों तक अपनी पहुँच बनाती प्रतीत होती हैं। इनकी आलोचनाएँ और समीक्षाएँ भी कुछ इस तरह प्रस्तुत की गई हैं, और की जा रही हैं कि उनमें वायवीयता ही अधिक मिलती है। इधर आलोचना में एक नया स्वर सुनाई दिया है- ‘कविता का अर्थात’। डॉ परमानंद श्रीवास्तव ने कुछ चुनिंदा कवियों की कविताओं में ‘कविता के अर्थात’ को खोजने का प्रयास किया है, गोया ‘कविता का अर्थात’ कविता के लिए कोई नई मूल्य-चेतना हो अथवा कविता स्वयं में आज इतनी दुरूह हो गई है कि उसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसका कोई अर्थात खोजना पड़ रहा है।

मेरा यह संगुंफन नई कविता के इसी दौर में लिखा गया है, अभी ही बीती सदी के उत्तरार्द्ध में। मेरी भावाभिव्यक्तियों के केंद्र में करुणा और उसकी संवेद्यता, दोंनों हैं। बुद्धि भी सानुपातिक है। विचार हैं, कल्पना है। इसमें लघु मानव भी है और महामानव भी। पर यहाँ लघु और महा एक झीने अंतर्स्वन से जुड़े हैं। इन्हें संप्रेष्य बनाने के लिए मेरी काव्य-चेतना भी पूरी तरह सजग है। हाँ इनमें कुछ तत्सम शब्दों को लेकर सामान्य पाठकों को समस्या हो सकती है। पर वे इस कठिनाई से आसानी से पार पा सकते हैं क्योंकि इनमें वायवीयता नहीं है। अपनी भावाभिव्यक्तियों के लिए मैंने कलेवर ‘नर्इ्र कविता’ का, छंद में मुक्त छंद और शैली ‘मैं’ की अपनाई है। यह ‘मैं’ एक अर्थ में परसोना जैसा लगता है क्योंकि यह मेरे अंतर्भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। किंतु सत्य यह है कि इसमें स्वयं मैं और मेरे अनुभूत धड़क रहे हैं। मेरे इन अंतर्भावों में मेरी अस्मिता घुली हुई है।

इसमें मैंने हर संभव प्रयत्न किया है कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ वह मेरे संबोध्य तक तो एक लय में पहुँचे ही इसके पढ़ने सुनने वाले के हृदय में भी समतरंगों में प्रतिस्वन करे। काव्यभाषा भी मैंने कथ्य के अनुरूप ही अपनाई है।

मेरे लिए कविता न कहीं गई थी न वापस हुई है। कविता के अणु कवि ही नहीं, हर व्यक्ति के अंतर्जगत में विद्यमान हैं। कैसे कुछ कवि यह कह सके कि कविता की अब वापसी हो गई है, मानो वह कहीं चली गई थी। जिस समय यह विचार हमारे सामने आ रहा था उसी समय भिखरी ठाकुर, जिन्हें राहुल सांकृत्यायन महाकवि की संज्ञा देते हैं, अपनी भोजपुरी कविताओं को जनोन्मुख कर रहे थे। भोजपुरी भी हिंदी की ही एक उपभाषा है। अवधी और ब्रजभाषा की तरह इसका भी हिंदी में स्थान है। लोक के जन अपनी गलियों, खेतों, चौपालों में जत्थे बनाकर अपनी भाषा में गा नाच कर, और अपने हृद-मन में उमड़ती भावनाओं को अपने शब्दों में पिरो कर हवा में तरंगायित करते रहते हैं। यह कविता ही तो है। इन कवियों को इमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए था कि उनके हृद-सर का करुणाजल सूख गया था। उनके हृद-मन की घाटी में प्रतिसंवेदन की क्षमता छीज गई थी। कविता न कहीं गई थी न कहीं जाती है। उसके अणु हर व्यक्ति के हृदय में अंतर्भूत रहते हैं। इसको उद्बुद्ध करने के लिए व्यक्ति को अपनी संवेदना को घना करना पड़ता है।

मेरी काव्य-चेतना ने इस संगुफन में कुछेक प्रयोग किए हैं। इसे इस संगुंफन के शिल्प में देखा जा सकता है। मैं कविता की गलियों का राही हूँ। इस काव्याभिव्यक्ति में मैंने कमोबेश एक नई राह अपनाई है। काव्यवस्तु के चुनाव में अधुनातन दृष्टि का पोषक हूँ। पर मैं उसे उसके पहले की चेतना का ही विकास मानता हूँ। इस संगुंफन की काव्यवस्तु में तुलसी की विनयपत्रिका की झलक है किंतु इसमें अपने संबोध्य तक पहुंचने के लिए तुलसी के दावपेंच नहीं हैं। इसमें तर्क से तर्कातीत की ओर अग्रसर होते हुए सीधे संबोध्य की समानुभूति में प्रवेश करने की चेष्टा है। इस चेष्टा में मेरी आँखों के तिल में विश्व तरंगित है। विश्व-क्षितिज के कोने कोने से आती अनुभव-तरंगें हमारे पोर पोर का अतिक्रमण कर हमारे उर-मन को कुरेदती हैं।

मैंने अपने हृद-मन की घाटी में इन तरंगों को प्रतिसंवेदित होने दिया है। अपने अकेले के पलों में इनके पलों को निहारा है। फिर अपने अकेले की नाव लिए अपने अकेले के पलों को जीता हुआ अपने संबोध्य की उपस्थिति में अपने अकेले की ओर चल पड़ा हूँ। फिर कुछ पल ठहर कर मैंने अपने अंतस्तल की संवेदना के तंतुओं में उमड़ते करुणाजल को टटोला है। फिर मैं अनुस्मरण में तल्लीन हो गया हूँ, इस परीक्षा के लिए कि जिस राह का मैं राही हूँ उस राह में मेरे संवेदना के तंतुओं में कहीं विखराव तो नहीं हो रहा।

मुझे लगता है आज की सबसे बड़ी समस्या आज का मनुष्य है। मनुष्य की संवेदना मर-सी गई है। कवि भी करुणा और संवेदना को कम महत्व देने लगे हैं। उनकी संवेदना उनकी बुद्धि के भार से बोझिल हो गई है। वे इनकी समाई, उनके आयाम और अस्तित्व को तर्क की धनी बुद्धि से नापने लगे हैं। मेरी दृटि में आज कवियों को अनिवार्य रूप से करुणाप्लावित होकर ऐसी रचनाएँ लोक को देनी चाहिए जो उनकी संवेदनाओं को घना करे। अबतक की कविताओं ने उन्हें केवल सुखाया है। मेरी समझ से व्यक्तिमात्र के अंतर्जगत में बीजरूप में विद्यमान संवेदना के अणुओं को उद्बुद्ध कर उसे घना करना हमारा काव्यधर्म होना चाहिए। इस संगुफन में मेरा यही प्रयास है। अस्तु।