भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह समय अस्थियों के गलाने का है / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
फूल तितली के किस्से बहुत हो लिये
आज का युग सितारों पै जाने का है
वज्र-वीण की झंकार में शंख-ध्वनि-
गूँथ कर, अग्नि के गीत गाने का है
आज छाया कुहासा घना विश्व पर
तम की दीवार इस्पात-सी है तनी
ज्योति का एक कण भी नहीं दीखता
काल विकराल की भी हैं भौंहे तनी
मानवी-मूल्य धरती पै औंधे पड़े
आज का युग उन्हें ही उठाने का है
संत आये कइ्र, हमने बातें सुनीं
कान की धुनकियों पर रुई-साधुनीं
जिन्दगी में उन्हें कब उतारा गया
प्रीत की बाँसुरी रह गयी अनसुनी
वज्र-निर्माण की मौसमी माँग है
यह समय अस्थियों के गलाने का है