यह सामाजिक परिवर्तन है ? / विमल राजस्थानी
कैसे आऊँ पास तुम्हारे ओ मेरे सपनों की रानी
मेरा प्रान्त, शहर भी मेरा बहुत-बहुत बीमार है
महँगी ने, बेकारी ने तो पहले ही अधमरा किया था
अब हत्याओं, लूट, फिरौती से विदीर्ण, बेजार है
किस क्षण-, किसको चौराहे पर-
ही गोली मारी जायेगी
किस पल, किसका बच्चा गुम होगा
मा तड़पे, चिल्लायेगी
भरी भीड़ से कब किसको ये
क्रूर लुटेरे ले जायेंगे
बन कर बोटी कब गिद्धों के-
आगे हम फेंके जायेंगे
पता नहीं कब किस क्षण बहू-
बेटियों की अस्मत लुट जाये
ज्ञात नहीं, कब कौन कहाँ से-
इस धरती पर से उठ जाये
है ऐसा माहौल कि आजादी बर्बादी लगती है
काँप् रहे थर-थर-थर सारे गाँव शहर बाजार हैं
जो रक्षक-सिरमौर कह रहा-
‘यह सामाजिक परिर्वतन है’
लूट रहे हैं अब ये जिनका-
सिमट-सिमटर कर आया धन है
जन-प्रतिनिधि भी मौन हुए
न जानेक्या लगते हैं हत्यारे
रंक बने राजा इन दस्यु-
दलों के ही तो संग-सहारे
जायें किसके पास तीसरा-
तो अब केवल परमेश्वर है
सुनता नहीं हाय ! वह भी तो-
लगता है ज्यों वज्र-वधिर है
और इधर जन-शक्ति नपुंसक हुई ‘अहिंसा’ जपते-जपते
किंकर्तव्यविमूढ़ों के सिर लटक रही तलवार है
लगता है लेनी ही होगी शरण तुम्हारी ओ सतवंती !
चिता-ज्वाल में गोद तुम्हारी ही अंतिम आधार है