भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह हाथ / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह हाथ:
जो तुम्हारे-मेरे मिलन-बीच
लोहे की दीवार बनकर आ गया है,
तुम्हारा नहीं है।
तुम्हारे संस्कारों का हाथ है
नैतिकता के उन पैतृक आधारों का हाथ है
जो तुम पर थोपे गये हैं
और आज जिनके संघट्ट में तुम खो गई हो।

यह हाथ:
जो तुम्हारे देह-मंदिर का कपाट बनकर आ गया है,
तुम्हारा नहीं है।
यह धर्मों-समाजों का हाथ है
उन रस्मों-रिवाजों का हाथ है
जो तुम्हारी चेतना पर कुहरे से छाए हैं
और जिनके धुँधलके में घुट रही हो तुम।

बार-बार मैं प्रहार करता हूँ
पर तुम्हारी आत्मा पर तना यह लोह-आवरण
हट नहीं पाता
तुम्हारी चेतना को धुँवाता हुआ यह कोहरा
छँट नहीं पाता
फिर भी मैं हताश नहीं हूँ
जानता हूँ:
यह हाथ जो तुम्हारे-मेरे मिलन-बीच
लोहे की दीवार बनकर आ गया है,
तुम्हारा नहीं है।