यह है कितने प्रकाश वर्षों की दूरी / शैलेन्द्र चौहान
समय
किसी टेढ़ी-मेढ़ी पगडन्डी सा चला
नदी की धार सा बहा
युगों, शताब्दियों, दशकों
कितने तूफान
कितने चक्रवात
धर्म, अधर्म-युद्ध
वर्ण, जाति, वस्त्रों तक
वैभव की अट्टालिकाओं से
अभावों की पगडन्डियों तक
स्वर्ण झूलों में झूलते राजकुमारों
और कंकडीली, कटीली भूमि के
भूमिपुत्रों तक
पाखंड, ढोंग, चमत्कारों से
अंधश्रद्धालुओं की दयनीयता तक
वेद, उपनिषद, मनुस्मृति, गीता से
जासूसी उपन्यासों तक
अट्टहासों से कराहों
बैलगाड़ियों से वायुयानों तक
नि:शब्द एकांत वन प्रांतर से लेकर
सूचना प्रौद्योगिकी की धूम तक
निर्बाध बढ़ता रहा आगे
क्यों नहीं किसी के अहंकार से
सहमा
किसी की वेदना से ठहरा
न फूलों की
अकलुष मुस्कान में बिंधा,
चंद्रयात्राओं से झिझका
न सूर्य-उल्काओं से हुआ विचलित,
वनचरों के तीरों से घायल
प्रत्युत
किसानों की क्षीण देह का
दाय ही बना ।