यह है माया को संसार! / राधेश्याम ‘प्रवासी’
यहै है माया का संसार,
समुझि डगरोहियो बढेउ अगार,
पाँय के आगे फिसलनि है,
राह सूखी पै रपटनि है!
फूलि का यौवन मैहाँ फूल,
रहे हैं कहुँ डालिन पर झूल,
देखि के तुम इनका अनुकूल
न जायउ कहुँ अपनो पनु भुल,
फाटि जाई फँसि कै आँचल,
विकट ऐसी यह उरझनि है!
बचपना ओरू ऐस गरिजाय,
जवानी सपनेन मा धुलि जाय,
श्याम पर गई सफेदी छाय,
बुढ़ापा लै गै मौत उठाय,
अचाका झप्पा मरि है काल,
बाज की ऐसी झपटनि है!
बदलु ना पारस, बदले काँच,
सपन मा सौ-सौ नाच न नाच,
साँच ना यहु ना, बहु है साँच,
साँच पर कबहु न आई आँच,
हियइ मा अमरउती है धार,
बहि रही जगकी मटकनि है!
सुवा सेमर तजि कै उड़ि परा,
पतिंगा कहूँ दिया पर जरा,
कमल माँ फँसिकै भँउरा डरा,
बीन का सुनिकै हिरना मरा,
समुझि तुइ जहिका रस्सी रहा,
साँप की वह तौ घिसलनि है!