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यां का दस्तूर यकायक न बदल जाए कहीं / कांतिमोहन 'सोज़'
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यां का दस्तूर यकायक न बदल जाए कहीं ।
आतिशे-अश्क से पत्थर न पिघल जाए कहीं ।।
तीरगी से बड़ी मुश्किल से हुए हैं मानूस
घुप अन्धेरे में कोई शमअ न जल जाए कहीं ।
इतनी गुंजान ख़मोशी भी मुज़िर है जानां
अपनी आवाज़ से तू ख़ुद न दहल जाए कहीं ।
यूँ तो सहमा हुआ कोने में पड़ा है बेहिस
दिल तो दिल है न कोई चीख़ निकल जाए कहीं ।
हर घड़ी दोस्त मोहब्बत की हिफाज़त करना
आग पे रक्खा है दिल खूं न उबल जाए कहीं ।
देके ख़्वाबों के खिलौने उसे बहलाया है
आँख खुलते ही तबीयत न संभल जाए कहीं ।
हज़रते सोज़ ग़ज़ल का तो ये किरदार नहीं
आपका ज़ोम रहे-चश्म न ढल जाए कहीं ।।