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यां तलक जान पे बन आई बहुत रात गए / कांतिमोहन 'सोज़'

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यां तलक जान पे बन आई बहुत रात गए ।
हमने जीने की क़सम खाई बहुत रात गए ।।

कैसे कह दूँ कि मेरे कान में रस घोल गई
दूर बजती थी जो शहनाई बहुत रात गए ।

हम थे नादां हँसे एक बार तो हँसते ही गए
दिन की करनी पड़ी भरपाई बहुत रात गए ।

कल समुन्दर में मचा होगा घमासान बहुत
दर्द लेता रहा अंगड़ाई बहुत रात गए ।

कल तो ये राज़ भी खुल जाएगा सब पर यारो
याद आया था वो हरजाई बहुत रात गए ।

हम तमाशा न बने हमने बहुत ज़ब्त किया
आन पहुँचे थे तमाशाई बहुत रात गए ।

चीख़ निकली ही नहीं लाख जतन कर देखे
सोज़ को डस गई तनहाई बहुत रात गए ।।

2016 में मुकम्मल हुई