भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याचना / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे
सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे
ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों
उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो

जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से
हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से
जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में
तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में

जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी
जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी
जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से
जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से

जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में
इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में
करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में
मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में

हम हाें सुमन की सेज पर या कंटको की आड़ में
पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में
हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में
तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में